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Home»अभिमत»गुड़ी पड़वा : नवसंवत्सर का आरंभ
अभिमत

गुड़ी पड़वा : नवसंवत्सर का आरंभ

Team RashtrawaniBy Team RashtrawaniApril 11, 2024No Comments10 Mins Read
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गुड़ी पड़वा : नवसंवत्सर का आरंभ
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चैत्र शुक्ल पक्ष एकम् सृष्टि विकास के आरंभ का दिन है, और संसार के लिये नवसंवत्सर । अर्थात नये संवत् वर्ष का प्रथम दिन है। अब विक्रम संवत् 2081 और युगाब्द 5126 आरंभ हो रहा है । इस संवत्सर का आरंभिक नाम तो “पिंगल” होगा पर 24 अप्रैल से वर्षभर “कालयुक्त” नाम से जाना जायेगा । वर्ष राजा के मंगल और मंत्री का दायित्व शनि के पास रहेगा। युगाब्द संवत् महाभारत युद्ध के बाद सम्राट युधिष्ठिर के राज्याभिषेक, और महाराज विक्रमादित्य के राज्याभिषेक की तिथि से विक्रम संवत् आरंभ हुआ है।
भारतीय नववर्ष 9 अप्रैल 2024 से शुरू हो रहा है । इसे भारत में अलग-अलग नामों से जाना जाता है । कहीं “चेती चाँद” कहीं “गुड़ी पड़वा” कहीं “युगादि”, कहीं “उगादी” कहीं “पड़वो” कहीं “नवरेह” तो मणिपुर में सजिबु नोंगमा पानबा नामसे जाना जाता है ।
भारत में कोई तिथि, त्यौहार, परंपरा, उत्सव और उसका शब्द संबोधन यूँ ही नहीं होता । इसके पीछे सैकड़ो वर्षों का शोध, अनुसंधान का निष्कर्ष होता है । जिसमें प्रकृति से तादात्म्य निहित होता है । यह विशेषता नव संवत्सर तिथि की भी है । नवसंवत् आरंभ होने तिथि को गुड़ी पड़वा भी कहते हैं । यदि सृष्टि और समय का आरंभ शिवरात्रि से हुआ तो सृष्टि के विकास का आरंभ गुड़ी पड़वा से हुआ । इसीलिए सम्राट युधिष्ठिर और महाराज विक्रमादित्य ने अपने राज्याभिषेक केलिये इसी तिथि का चयन किया था । अब इसके नाम “नवसंवत्सर” को देखें। यह शब्द संस्कृत की दो धातुओं से बनता है । एक सम् और दूसरी वत् । पहली धातु सम् । इसमें “स” सृष्टि का प्रतीक है । इसीलिये सृजन, सृष्टि, संसार, संहार जैसे शब्द इसी धातु से बनते हैं । और म् सृष्टि के रहस्य का प्रतीक है । इसीलिये परम् ब्रह्म इन दोनों शब्दों को पूर्णता म् से मिलती है तो माँ का आरंभ भी म् से होता है । अब इन दोनों धातुओं को मिला कर शब्द बना संवत् । इसमें नव शब्द उपसर्ग के रूप में लगता है । तब शब्द बनता है नवसंवत्सर । अर्थात एक ऐसी तिथि, ऐसा समय, ऐसा पल जब हम सृष्टि के रहस्यों के अनुरूप नव सृजन के विस्तार की ओर अग्रसर होने का संकेत करता है । भारत में काल गणना का इतिहास कितना पुराना है । यह कहा नहीं जा सकता । यह लाखों वर्ष पुराना भी हो सकता है । पाँच हजार वर्ष से तो यह गणना एकदम सटीक और पूर्णता वैज्ञानिक स्वरूप में प्रमाणिक हो गई है । युगाब्द और विक्रम संवत की काल गणना इतनी सटीक है कि आधुनिक विज्ञान भी हत्प्रभ है । पाँच हजार वर्ष पूर्व आरंभ युगाब्द गणना भी आधुनिक विज्ञान के निष्कर्ष से भी सटीक है । युगाब्द और विक्रम संवत् के बारे में ऐसा नहीं है कि इसे नये शोध के अनुसार गणना करके पूर्व की तिथि से लागू कर दिया हो जैसा ईस्वी सन् के बारे में है । आज पूरी दुनियाँ जिस ईस्वी संवत् को मान रही है वह मुश्किल से साढ़े चार सौ वर्ष पुराना है लेकिन उसे ईसा मसीह के जीवन काल की अनुमानित गणनाएं करके लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व की तिथि से लागू किया गया था । ऐसा भारतीय काल गणना में नहीं है । यहाँ संवत् युगाब्द का हो विक्रम संवत् का, दोनों में महीने या दिन की गणना ही नहीं घंटे मिनिट की गति गणना भी पहले दिन से है । किसी में कोई संशोधन न हुआ, और न कोई परिवर्तन । यहाँ तक कि नक्षत्रों की संख्या, उनके नाम में भी यथावत हैं ।

भारत की काल गणना में दिन, तिथि, नक्षत्र, योग और करण इन पाँच विन्दुओं का ज्ञान मिलता है इसलिए इसका नाम “पंचांग” है । यह गणना इतनी शोध परख थी कि समय और उसके अनुसार ऋतु परिवर्तन की गति को पत्थरों पर उकेर दिया गया था । जिसके अवशेष दिल्ली के जंतर मंतर, जयपुर और उज्जैन आदि नगरों में आज भी मौजूद हैं । भारत की कालगणना में सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी की गति के साथ अंतरिक्ष के अन्य प्रमुख ग्रहों की गति और प्रभाव का भी आकलन होता है । यह भारतीय मानस के लिये गर्व का विषय है कि यूरोप वासियों का जब भारत आना जाना हुआ तब उन्होनें अपने कैलेण्डर में भारतीय प्रावधानों के अनुरुप संशोधन किये । उदाहरण के लिए पृथ्वी लगभग 1600 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से घूमती है उसे एक पूरा चक्कर लगाने में चौबीस घंटे लगते हैं । इसे अहोरात्र कहते हैं । इसके एक भाग को जो एक घंटे का होता है, इसे पंचाग की भाषा में ‘होरा’ कहते हैं । होरा को यदि रोमन में लिखेंगे “HOURA” स्पेलिंग बनेगी इसमें से “A” को हटाकर अंग्रेजी में HOUR यनि आवर कहा गया । यूरोप में यह संबोधन भी एक घंटे के लिये है । उन्होंने उच्चारण थोड़ा बदल लिया है इसलिये इस पर हमारा ध्यान एक दम नहीं जाता । इसी प्रकार उनके कैलेण्डर में पहले केवल दस माह होते थे । दिनों की संख्या भी नियमित नहीं थी । उन्होने जब भारत आकर इस सत्य को जाना तो उन्होंने इसी आधार पर अपने कैलेण्डर को बारह मासी बनाया । जबकि भारतवासी पाँच हजार वर्ष पूर्व भी पृथ्वी और सूर्य की गति की गणना करना जानते थे । इसीलिये युगाब्द गणना में भी आज तक एक भी सेकेण्ड का अंतर नहीं आता ।

पृथ्वी अपनी परिक्रमा 27 दिन और तीन घंटे में पूरी करती है । इसलिये इस अवधि एक माह की पूर्णता माना गया । लेकिन वर्ष पूर्णता केवल पृथ्वी की गति की पूर्णता से नहीं । होती अपितु इसमें अन्य ग्रहों की सक्रियता और गति भी समाहित रहती है इसलिये वर्ष में 365 दिनों से थोड़ा अधिक समय लगता है । यह समय 365 दिन 15 घड़ी और 30 पल लगते हैं । इस अतिरिक्त समय के समायोजन के लिये कभी अधिक मास और कभी एक माह में दो तिथियों का प्रावधान किया गया है । भारतीय अनुसंधान कर्ता भी इस अतिरिक्त समय का निर्धारण किसी माह विशेष में कर सकते थे जैसा यूरोपियन कैलेण्डर में किया गया है । किंतु भारत में इस अतिरिक्त समय का समायोजन अन्य ग्रहों की गति जो नक्षत्र को प्रभावित करती है उसका आकलन करके किया जाता है । इसीलिए अलग अलग समय पर समायोजन का प्रावधान करके पंचांग बनाया गया।

प्रचलित गैगरियन कैलेण्डर में केवल दो ही बातों का ज्ञान मिलता है । एक दिनांक और दूसरा वार । जबकि भारतीय युगाब्ध और विक्रम संवत के पंचांग में पांच बातों की गणना की जाती है । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा है पंचांग अर्थात पाँच अंग । इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, कर्ण और योग इन पाँच सूचकों के साथ पंचांग तैयार होता है । माह के नाम भी नक्षत्र के नाम के आधार पर होते हैं । जैसे चैत्र मास का आरंभ चित्रा नक्षत्र के आरंभ से होता है इसीलिए चित्रा नक्षत्र के आधार पर मास का नाम भी चैत्र है । विशाखा नक्षत्र से वैशाख माह, ज्येष्ठा नक्षत्र के नाम से ज्येष्ठ माह । इसी प्रकार सभी बारह माहों के नाम और उनके आरंभ से ही माह का आरंभ होता है । माह की अवधि भी नक्षत्र की कालावधि से निर्धारित होती है । इसलिये इसमें त्रुटि की गुंजाइश नगण्य है।
जिस प्रकार भारतीय काल गणना में शोध और अनुसंधान की पूर्णता है नामकरण का भी सिद्धांत है उसी प्रकार इसके आयोजन या आज की भाषा में कहें तो इसे मनाने का भी एक सिद्धांत है।
भारतीय नवसंवत्सर दिवस एक वर्ष की पूर्णता और नये वर्ष का आरंभ दिवस तो ही । इसके साथ यह प्राणी के प्रकृति से एकाकारिता का दिवस भी है । यह ऋतु, ग्रह नक्षत्र, योग और कर्ण के परिवर्तनों से स्वयं के तादात्म्य बिठाने और उनके अनुरूप स्वयं को उन्नत बनाने का दिन भी होता है । इसलिये नवसंवत्सर के दिन केवल नव वर्ष मनाने, नाचने-गाने या उपद्रव मचाने की बात नहीं होती । चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा ऋतु संगम की तिथि होती है । शीत और ग्रीष्म दोनों का संतुलन। इसलिए नववर्ष संतुलित जीवन के अभ्यास से आरंभ होता है । इस दिन सूर्योदय से पूर्व जागकर पवित्र नदी जल से स्नान करना होता है । और नीम की पत्ती चबाकर खाने का नियम बनाया । आधुनिक विज्ञान ने भी माना है कि नीम में रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है । इस दिन पालतू पशुओं को भी नमक और नीम आदि का घोल पिलाने की परंपरा है । वर्ष के इस पहले दिन की साधना पूरे वर्ष स्वस्थ्य रहने का मार्ग बनाती है । प्रगति के लिये स्वयं को सक्षम बनाने के लिए स्वयं को योग्य बनाना आवश्यक है । सबसे पहले स्वास्थ्य, योग्यता और फिर लक्ष्य प्राप्ति के लिये संकल्प आवश्यक होता है । इसीलिये संकल्प और साधना के लिये नववर्ष के साथ नवरात्रि को भी जोड़ा गया है । नवरात्रि प्रकृतिस्थ होने के दिन है, कायाकल्प करने के दिन हैं । पहले दिन नवरात्रि पूजन या नवरात्रि घट स्थापना से पूर्व प्रातः सूर्योदय से पूर्व जागकर विशेष स्नान पूजन के साथ आयु को समृद्धि देने वाली औषधि का पान करने विधान है । इस दिन पवित्र बहते जल में या बहते हुये जल से युक्त सरोवर में स्नान करना होता है । स्नान केवल जल से नहीं अपितु पहले तैलीय स्नान अर्थात पूरे शरीर को तेल की मालिस फिर जल स्नान । नीम की पत्ती को बारीक पीसकर काली मिर्च के साथ सेवन करने का विधान है । फिर गुड़ी का पूजन । इतना करके गट स्थापना और नवरात्रि पूजन आरंभ करने का विधान है ।
भारतीय काल गणना में अनेक आकलन हैं । कल्प, युग, वर्ष, माह, सप्ताह दिवस आदि के साथ ऋतु आकलन भी है । एक ऋतु औसतन दो माह की होती है । वर्ष को कुल छै ऋतुओं में विभाजित किया गया है । चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा बसंत ऋतु के समापनऔर ग्रीष्म ऋतु के आगमन का संधिकाल है । ऋतु परिवर्तन पूरी प्रकृति पर प्रभाव डालता है । बसंत ऋतु में यदि नव कोपलों का उत्सर्जन होता है तो ग्रीष्म में विस्तार का आकार लेतीं हैं । ऋतु का यह परिवर्तन मनुष्य के मन मानस पर भी प्रभाव डालता है । इस प्रभाव के सकारात्मक लाभ लेने और अपने तन, मन, मानस को उसके अनुरूप बनाने के लिये ही नवरात्रि साधना का प्रावधान किया गया है ।
आज भारत अपने विकास के आयाम में एक करवट ले रहा है ।यदि मध्यकाल के लगभग एक हजार वर्ष को छोड़ दें तो संसार ने सदैव भारत से ही सीखा है । शोध और अनुसंधान कर्ताओं ने सदैव भारत की धारणाओं को स्वीकारा है और आश्चर्य व्यक्त किया । ऐसा डेढ़ सौ साल पहले मेक्समूलर ने अपनी पुस्तक “हम भारत से क्या सीखें” में स्पष्ट लिखा कि ज्ञान भारत से बेबीलोनिया में गया, बेबीलोनिया से ईरान और ईरान से यूरोप में आया । वहीं ऊर्जा सापेक्षता और परमाणु सिद्धांत के अनुसंधान कर्ता अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि “यह भारत के ग्रंथों में पहले से है” ।

इसी सदी के वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने अपनी भारत यात्रा के समय दिल्ली में आयोजित उद्बोधन में समय के आकलन पर भारत के प्राचीन ज्ञान पर आश्चर्य व्यक्त किया था । उनकी पुस्तक “समय का इतिहास” में जो काल गणना है वह पूरी तरह प्राचीन भारतीय ज्ञान से मेल खाता है । यह विवरण जहाँ भारतीय जन मानस को गौरव की अनुभूति देती है वहीं इस बात के लिये सावधान भी करती है कि हम वाह्य प्रचार से भ्रमित न हों स्वयं को सक्षम बनायें । आज पुनः पूरा संसार भारत की ओर देख रहा है । दुनियाँ ने भारत से योग ही नहीं अपनाया अपितु ताजा कोरोना काल में भारतीयों की प्रतिरोधक क्षमता पर भी आश्चर्य है । इसपर भी वे शोध हो रहे हैं । अतएव यह प्रत्येक भारतीय का संकल्प होना चाहिए कि हम अपनी गौरवशाली परंपराओं के अनुरूप अपना जीवन वृत बनायें । यह मार्ग स्वयं को सक्षम बनाने का है और यही समय विश्व में भारत की साख बनाने का।

रमेश शर्मा, प्रसिद्ध स्तंभकार

HINDU NAV VARSH
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